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हरियाणा

मातृका विज्ञान: जब संवाद बन जाए साधना

Updated on Tuesday, June 17, 2025 15:27 PM IST

कॉर्पोरेट दुनिया में लीडरशिप डेवलपमेंट डायरेक्टर रहते हुए मैंने देश-विदेश में कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया। उन दिनों डैनियल गोलेमैन का ‘इमोशनल इंटेलिजेंस’ मॉडल अत्यधिक लोकप्रिय था। यह संवाद को मानवीय और सहानुभूतिपूर्ण बनाने की कला सिखाता था। इस मॉडल ने टीम वर्क और तनाव प्रबंधन में लाभ जरूर पहुँचाया, लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह महसूस हुआ कि यह मॉडल केवल मन और भावनाओं तक सीमित है। यह चेतना के गहरे स्तरों को नहीं छूता। संवाद की सतही परत यानी 'वैखरी वाणी' पर ही इसका प्रभाव रहता है, जबकि अनेक समस्याओं की जड़ आंतरिक चेतना की असंतुलित स्थिति होती है।
जब मैंने कश्मीर शैवदर्शन का अध्ययन किया, तब मुझे 'मातृका विज्ञान' के दर्शन ने चौंका दिया। यह विज्ञान ध्वनि, कंपन और चेतना के अद्वितीय संबंध को उजागर करता है। संस्कृत वर्णमाला के 50 अक्षरों को 'मातृका' कहा गया है—अर्थात वे शक्तियाँ जो सृजन की नींव हैं। हमारे ऋषियों ने शब्दों को केवल संप्रेषण नहीं, सृष्टि का स्रोत माना। वाणी को ब्रह्मांडीय ऊर्जा से जोड़ा और बताया कि संवाद जब चेतना से निकलता है, तो वह साधना बन जाता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में वाणी को चार स्तरों में विभाजित किया गया है परा वाणी – सबसे सूक्ष्म स्तर, जहाँ संवाद 'मैं' से नहीं, ब्रह्म चेतना से निकलता है। पश्यन्ती वाणी – जहाँ विचार रूप लेते हैं, लेकिन अभी शब्द नहीं बने होते। मध्यमा वाणी – वह मानसिक स्तर जहाँ विचार शब्दों में ढलने लगते हैं। यहीं ईआई सक्रिय होता है।वैखरी वाणी – वह जो बोली या लिखी जाती है। आधुनिक संवाद मॉडल इसी तक सीमित रहते हैं। सूफी संत मंसूर हल्लाज का “अनल हक़” इसी परा वाणी का उदाहरण था, जहाँ वक्ता लुप्त हो जाता है और शुद्ध चेतना बोलती है। इमोशनल इंटेलिजेंस हमें सिखाता है कि कैसे बोलें और सामने वाले की भावना को कैसे समझें। लेकिन मातृका विज्ञान यह सिखाता है कि कहाँ से बोलें—किस दृष्टि और ऊर्जा से संवाद करें। जब कोई नेता मातृका दृष्टि से बोलता है, तो उसकी बातों में कंपन, मौन, दृष्टि और भावना का समन्वय होता है। वह सामने वाले को केवल सुनता नहीं, भीतर से देखता है। यह केवल संवाद नहीं, उपचार बन जाता है। मातृका विज्ञान व्यावहारिक जीवन में कैसे उपयोगी है? मंत्र जप – जैसे 'ॐ' या बीज मंत्र, शरीर और मन को ब्रह्मांडीय कंपन से जोड़ते हैं। मध्यमा संवाद – प्रतिक्रिया से पहले आत्ममंथन को प्रोत्साहित करता है। पश्यन्ती स्तर – दृष्टि और उद्देश्य को स्पष्ट करता है। परा वाणी – संवाद को तप और सेवा में बदल देता है।
आज के शोध भी इस ज्ञान को प्रमाणित कर रहे हैं। ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन से मानसिक संतुलन, एकाग्रता और कार्यक्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। मैंने अपनी पुस्तक आई एम शिवा  में इसे “मॉडल फॉर विजन ” कहा है। यह केवल कौशल आधारित नहीं, चेतना आधारित शिक्षा का आह्वान करता है। आज जब दुनिया हिंसा, द्वेष और भ्रम के बीच डगमगा रही है, संवाद का माध्यम केवल तकनीक नहीं, साधना बनना चाहिए। मातृका विज्ञान संवाद को केवल भाषा नहीं, ब्रह्म से जोड़ता है। अब समय आ गया है कि हम मातृका विज्ञान को केवल ग्रंथों और गुरुकुलों में सीमित न रखें।
इसे भारत के शैक्षणिक पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाना चाहिए। जब विद्यार्थी संवाद को व्याकरण नहीं, चेतना से सीखेंगे, तो वे न केवल अच्छे वक्ता, बल्कि करुणाशील और उद्देश्यपूर्ण नागरिक बनेंगे। इमोशनल इंटेलिजेंस हमें बेहतर बोलना सिखाता है। मातृका विज्ञान हमें सत्य से बोलना सिखाता है। यह भारत की वह देन है जो विश्व को संवाद की एक नई दृष्टि दे सकती है—जहाँ भाषा ब्रह्म की अनुभूति बन जाए।अब ज़रूरत है संवाद में इस चेतना को लाने की। जब युवा यह जानेंगे कि केवल क्या नहीं, क्यों, कहाँ से और किस उद्देश्य से बोलना है, तब संवाद साधना बन जाएगा—और यही होगी संवाद की सच्ची क्रांति।

 
लेखक : डॉ. राज नेहरू
संस्थापक कुलपति, श्री विश्वकर्मा कौशल विश्वविद्यालय एवं ओएसडी, मुख्यमंत्री हरियाणा
 
 
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