जालंधर , अधिकांश इतिहासकारों ने सिख वास्तुकला की उपेक्षा की है, कुछ ने कृपालु रुप से इसे इस्लामी ओर राजपूताना शैलियों के समन्वय के रुप में स्वीकार किया है जिसे डाॅ एसएस भट्टी इसे एक ‘हिस्टोरिक फैलेसी’ (ऐतिहासिक भ्रम) बताते हैं। चंडीगढ़ काॅलेज आॅफ आर्किटेक्चर के पूर्व प्रिंसीपल डाॅ भट्टी मंगलवार को वर्चुअल रुप से शुरु हुये सिख आर्किटेक्टचर पर पहली बार अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठि के उद्घाटन सत्र में देश विदेश से जुड़े वास्तुकारों और संबंधित क्षेत्र के प्रोफेशनल्स को संबोधित कर रहे थे। इस तीन दिनों की सत्रों की संगोष्ठि में भारत के साथ साथ पाकिस्तान के 1000 से भी अधिक आर्किटेक्ट और अन्य प्रोफेशनल्स भाग ले रहे हैं। यह कार्यक्रम साकार फाउंडेशन द्वारा आयोजित और सिख चैंबर आॅफ कामर्स द्वारा समर्थित, पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब के प्रकाश उत्सव के उपलक्ष्य पर आयोजित किया जा रहा है। अपनी तरह के इस पहले आयोजन में उत्तरी भारत के 8 आर्किटेक्टचर कालेजों, आशरे, एसोचैम-जेम, फायर एंड सिक्योरिटी ऐसोसियेशन आॅफ इंडिया, चंडीगढ़ और पंजाब चैप्टर के इंडियन इंस्टीच्यूट आफ आर्किटेक्ट्स का भरपूर सहयोग है।
संगोष्ठि के संयोजक आर्किटेक्चर सुरेन्द्र बाहगा ने इस आयोजन के उद्देश्य से अवगत करवाते हुये प्रतिनिधियों का स्वागत किया।
डाॅ भट्टी ने अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर पर अपनी तीसरी पीएचडी में, दुनिया भर में फैले भवन डिजाईन के रुपों पर शोध किया और स्थापित किया कि कैसे ‘सिख वास्तुकला’ इस्लामी, ईसाई, बौद्ध और हिन्दु शैलियों की तरह एक स्वतंत्र ऐतिहासिक शैली है। वर्तमान में, उन्होंनें स्वर्ण मंदिर को सिख वास्तुकला की मदर (मां), मेकर (निर्माता) और मार्वल (चमत्कार) के रुप में प्रदर्शित किया है।
उन्होंनें खेद व्यक्त किया कि वास्तुकारों और मैनेजमेंट ने मिलकर सिख धर्म के इस पवित्रतम तीर्थस्थली की महिमा को इसके धार्मिक सिद्धांतों और गुरुओं के आध्यात्मिक उपदेशों की सरासर अज्ञानता के कारण इसे अपने कद से उचां नहीं उठने दिया।
औरंगाबाद स्थित वास्तुकार अब्राहम पाथरोस ने अमृतसर के गुरुद्वारा सारागढ़ी मेमोरियल और गुरुद्वारा चैरस्ती अटारी पर किये जा रहे संरक्षण कार्यो पर अपने विचार व्यक्त किये। उन्होंनें बताया कि ये अद्भुत गुरुद्वारों, भले ही छोटे आकार में, अपने अस्तित्व के माध्यम से बहुत महत्व रखते है, पर्यटन के साथ साथ वास्तु पेशे की दृष्टि से प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। उन्होंनें कहा कि स्कूल ट्रिप्स और पर्यटकों को यहां आने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे की दोनों गुरुद्वारों की विशाल महिमा का प्रचार किया जा सके। अब्राहम ने इस रुप से अन्य विरासती स्थलों पर भी ऐसे सरंक्षण कार्य करने की पैरवी की।
सत्र के दौरान लाहौर युनिवर्सिटी आॅफ मैनेजमेंट साईंसेज में आर्ट हिस्ट्री की ऐसोसियेट प्रोफेसर डाॅ नाधरा शाहबाज खान ने अपनी प्रेजेंटेशन में लाहौर किले में और उसके आसपास सिख स्मारकों पर अपनी राय रखी। उन्होंनें कहा कि वास्तुकला विरासत एक शहर में प्रतिष्ठा जोड़ती है। उनके अनुसार यह जितनी विविध होगी उतनी ही आकर्षक यह पर्यटकों और नोलेज सीकर्स (ज्ञान प्राप्ति करने वालों) के लिये वरदान सिद्ध होगी। लाहौर को अपने सिख-काल के स्मारकों पर गर्व है और 19वीं शताब्दी के दौरान सिख राजघरानों और कुलीनों द्वारा स्थापित किये गये कई गुरुद्वारों, हवेलियों, समाधियो और बारादरियों की अमिट छाप छोड़ता है। उन्होंनें इस बात पर बल दिया कि इन स्मारकों में से अधिकांश पंजाब के इतिहास के अस्पष्ट या गलत पढ़े गये अध्याय हैं जिन्हें नये सिरे से अध्ययन करने की आवश्यकता है।
जालंधर स्थित सीटी इंस्टीच्यूट आॅफ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग की प्रोफेसर श्रुति कपूर गत वर्ष गुरु नानक देवजी के 550वें प्रकाशोत्सव के दौरान ‘सुल्तानपुर लोधी की वास्तुकला’ के दस्तावेजीकरण में शामिल थीं। उन्होंनें अपनी प्रेजेंटेशन में बताया कि सुल्तानपुर लोधी के स्थापत्य इतिहास का निष्कर्ष है कि शहर ने वास्तुकला की विभिन्न शैलियों को देखा है। यह बौद्ध धर्म, मुगल विरासत का गढ़ था और इसमें सिख वास्तुकला की भी प्रमुख उपस्थिति रही थी जिसे अब संरक्षित करने की जरुरत है।
कार्यक्रम के दौरान दिल्ली के वास्तुकार दीपिका टुटेजा, वास्तुकार रमनीक घड़ियाल और दीपिका शर्मा ने भी सत्र में संबंधित विषयों पर अपने विचार व्यक्त किये।